Friday, March 18, 2011

इक नदी है

इक नदी है पर्बतों के किनारियों से उछलती हुई , पथरीली राहों पर डगमगाकर चलती हुई , फिर एक मोड़ पर सहम कर रुकी रुकी सी बहती हुई, अपनी चंचलता से ऊब गयी हो मानोफिर बंजर, बाँझ सी , अपने बोझ से दबी थम, थम कर पैर रखने वाली समुन्दर से जा मिलतीठीक अपनी ज़िन्दगी जैसीहै ना ?

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